Wednesday, February 28, 2007

गुमाँ

रुबाई:

क्या वही होता है सच जो नजरे-नुमाँ होता है
याके होता है सच जो सचका गुमाँ होता है

गज़ल:

करता है करके मुकरता है कोई
अपना अपना अंदाज़े-इश्क होता है

हाले-दिल-ए-आशिक नज्म क्यों ना कहें
वो तो ऎसीये-ऎसीये बयाँ होता है

आपकी नाराज़ी हमपर जफ़ा होगी
क्या कोई अपनोंसे ख़फ़ा होता है?

हो न हो कोई तो ऎसा साग़र होगा
होश से पहले जो नज़ा को लाता है

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