Monday, March 5, 2007

शरर

रुबाई:
बेवफ़ा ज़िंदगी कुछ और क्या देगी
रफ़्ता रफ़्ता गुजर कज़ा देगी
जख्म देना तो उसकी आदत है
ज़िंदगी दे दे के कुछ और क्या देगी

गज़ल:
क्यों शरर को युं हवा देते हो
जल उठेगी तो शह़र जला देगी

जिस तरह़ उसने बात की मुझसे
लग रहा था के मुझे रुला देगी

जा रहे है वो तबाह़ कर मुझको
मेरी फ़ितरत है के उसे दुवां देगी

ज़िक्र उनका न कर ख़ुदा के लिये
के हक़िक़त तुझे हिला देगी

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