Tuesday, March 6, 2007

राज़

या ख़ुदा मुझको बता, ये ज़िंदगी क्या राज़ है
वो भी हमसे, हम उसीसे आजतक नाराज़ है

कर तलब युं जाम-ए-उल्फ़त कौन पीता है यहाँ
अश्क पी-पी कर बहकना, ये मेरा अंदाज़ है
[तलब=माँगना;]

देखिये वो आ रही है, रहगुजर पर्दानशीं
कौन है, क्या नाम उनका आजतक ये राज़ है

नग्मा-ए-दिल गा रहे थे महफ़िले-काफ़िर में हम
कौन रोया वो वहाँपर कैसी ये आवाज है ?

Monday, March 5, 2007

इश्क

इश्क की आग में हमको जलाने चले थे आप
चलते चलते इश्क में खुद भी जले थे आप

हमको ना चाहीये तेरे रहमो-करम की भीख
जी लेंगे जैसे भी मगर जियेंगे अपने आप

युं ज़िंदगी गुजार के कुछ तजरुबा तो हो
बचते बचाते ज़िंदगी क्युं जी रहे है आप

नाकाम हसरतोंका धुवाँ दिलमें उठे कभी
तब हमको याद कर के क्या करेंगे आप

हंसकर किसीका दिल जो तोडो तो है अदा
आसाँ खुद अपनी ज़िंदगी बनाते चले है आप

तारीकी

कैदे-ख़याल-ए-यार भी इतनी बुरी नही
दिल भी बहल ना जाये इतनी बुरी नही

कुछ इस कदर घनी है तारीकी-ए-हयात
आनी है सहर अब भी अभी शब ढली नही

साग़र तो मेरे लबसे कुछ दूर है अभी
साक़ी जो तू न हो तो ये महफ़िल सजी नही

मिलते रहेंगे और भी दुनिया में हमसफ़र
तेरे बगैर रंज-ओ-गम की कमी नही

जा तुझको हो मुबरक किसी घर की रौशनी
कबसे हमारी कब्रपर शमां भी जली नही

दिले-दश्त-ए-बेचिराग में तूफ़ान सा उठा
इक शै हिली नही के हवा भी चली नही

शरर

रुबाई:
बेवफ़ा ज़िंदगी कुछ और क्या देगी
रफ़्ता रफ़्ता गुजर कज़ा देगी
जख्म देना तो उसकी आदत है
ज़िंदगी दे दे के कुछ और क्या देगी

गज़ल:
क्यों शरर को युं हवा देते हो
जल उठेगी तो शह़र जला देगी

जिस तरह़ उसने बात की मुझसे
लग रहा था के मुझे रुला देगी

जा रहे है वो तबाह़ कर मुझको
मेरी फ़ितरत है के उसे दुवां देगी

ज़िक्र उनका न कर ख़ुदा के लिये
के हक़िक़त तुझे हिला देगी